'आगरे को जाएंगे, चार कौड़ी लाएंगे...', बच्चों को टेसू और झेंझी की कहानी भी सुनाएं, नहीं तो ब्रज से गायब हो जाएगी एक प्राचीन परंपरा
आगरा। तीन लकड़ी, उस पर एक ओर टेसू राजा, दूसरी ओर मंत्री और चौकीदार। बालक और बालिकाओं के इस गजब खेल से अब भी ब्रज की गलियों में प्राचीन परंपरा जीवित है, मगर पहले के मुकाबले बेहद कम है। शहरों का आलम तो यह है कि नई पीढ़ी ने कभी टेसू और झेंझी का नाम तक नहीं सुना। गांव ही हैं जो अब भी इसे संजोए हुए हैं लेकिन वहां भी परिवर्तन देखने को मिलता है।
टेसूरा टेसूरा घंटार बजइयो,
नौ नगरी दस गांव बसइयो...
झांझी के भई झांझी के,
फूल बताषे के...
सरवर तेरी दाड़ी,
महावर तेरौ फूल...
आगरे को जाएँगे, चार कौड़ी लाएंगे,
कौड़ी अच्छी हुई तो, टेसू में लगाएंगे,
टेसू अच्छा हुआ तो, गांव में घुमाएंगे...
ये वो गीत हैं जिनकी गूंज अब कम ही सुनाई देती है
विजयदशमी के पर्व के साथ ब्रज के गांवों में महाभारत काल से जुड़ी टेसू-झांझी की पांच दिवसीय परंपरा शुरू हो जाती है, जो शरद पूर्णिमा पर टेसू-झांझी के विवाह के साथ संपन्न होती है। शहर से लेकर गांव-देहात तक टेसू झांझी की दुकानें सज गई हैं। लेकिन शहर में सजी इन दुकानों को टेसू और झेंझी के खरीददार नहीं मिल रहे हैं।
आगरा के कमलानगर, बल्केश्वर, सुल्तानगंज की पुलिया, रामबाग, घटिया आजम खां, मदिया कटरा, आवास—विकास, नौलक्खा, सुल्तानगंज की पुलिया, आगरा कैंट, टेढ़ी बगिया पर कई बाजारों में टेसू और झेंझी बनाने वाले कारीगर हैं। पिछले कुछ सालों से टेसू—झेंझी बना तो रहे हैं लेकिन बनाना अब कम कर दिया है। कारीगरों का कहना है कि बहुत कम ही लोग इन्हें खरीदने आते हैं।
पुराने लोग बताते हैं कि यह लोक परंपरा महाभारत काल से जुड़ी है। एक दौर था जब नवरात्र खत्म होते ही टेसू-झांझी की ठेल लग जाती थी। कारीगर बनाकर दुकानदारों को बेचते थे। इनसे उनकी अच्छी कमाई हो जाती थी। अब परपंरा सिमटने के साथ कारीगरों का रोजगार भी छिनने लगा है। टेसू-झांझी बनाने वाले कारीगर बताते हैं कि पांच साल पहले तक अच्छी बिक्री होती थी। नवरात्र के एक महीने भर पहले से इससे बनाने का काम शुरू कर दिया जाता था। समय बदलने के साथ यह परपंरा भी अब सिमटने लगी है।
कारीगर बताते हैं कि इस बार टेसू-झांझी पर भी महंगाई की मार है। मिट्टी आदि नहीं मिलने के कारण कीमतें बढ़ी हैं। दुकानों पर 20 से 200 रूपये की कीमत तक के टेसू और झेंझी उपलब्ध हैं।
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