राजनीति के 'अटल' आदर्श
चाहे राजनीति हो-चाहे निजी ज़िंदगी, बतौर प्रधानमंत्री हों या बतौर नेता विपक्ष, एक कवि की छवि हो या दोस्ती की दास्तां। अगर जीवन के हर पहलू में आदर्श के साथ किसी के अटल होने का ज़िक्र आयेगा तो नि:संदेह उस फेहरिस्त में सबसे आगे अटल बिहारी वाजपेयी का ही नाम आएगा।
वैसे तो अटल जी के बारे में कुछ भी किसी से छिपा नहीं है। कोई कुछ नया लिख सके, ऐसा संभव भी नहीं है, लेकिन उनके बारे में जानी समझी बातें ही बार-बार लिखो तब भी लगती नई सी ही हैं।
दशकों तक राजनीति में रमे अटल की हर बातें शतकों तक ना सिर्फ़ याद रहेंगी, बल्कि आने वालों के लिए एक सबक भी बनी रहेंगी।
1968 में भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष से लेकर 1980 में भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष तक और 1957 में बलरामपुर से लोक सभा सदस्य बनने से लेकर 1996 में देश के प्रधानमंत्री बनने तक अटल जी का पूरा राजनीतिक जीवन संघर्ष, समर्पण और सदाचार का प्रतीक बना रहा।
अटूट इच्छाशक्ति अटल जी की सबसे बड़ी ताकत रही। विरोध कैसा भी हो और कितना भी बड़ा हो, जो ठान लिया सो ठान लिया। 11 और 13 मई 1998 का पोखरण अटल की इसी इच्छाशक्ति का गवाह है। पश्चिमी देशों को भनक भी नहीं लगी और अचानक भारत एक परमाणु संपन्न राष्ट्र हो गया। अनेकों प्रतिबंध लगने की आशंका को दरकिनार करते हुए अटल अपनी इच्छाशक्ति पर अटल रहे। पोखरण परीक्षण के बाद अमरीका और ब्रिटेन समेत कई पश्चिमी देशों ने भारत पर आर्थिक पांबदी लगा दी, लेकिन ये पाबंदियां कुछ वर्षों से अधिक नहीं टिक सकीं।
अटल जी ना सिर्फ़ हमेशा पड़ोसियों से बेहतर संबंध बनाने के पक्षधर रहे, बल्कि उसके लिए कदम भी आगे बढ़ाते रहे। यही वजह रही कि 19 फ़रवरी 1999 को उन्होंने दिल्ली से लाहौर के लिए बस सेवा की ना सिर्फ़ की शुरुआत सदा-ए-सरहद के पहले यात्री बने।
अटल जी की दूरदर्शिता का हर कोई कायल रहा है। कल से कल को समझने की जो कला अटल जी में थी वो बिरले नेताओं में ही होती है। यहां दो उदाहरणों का ज़िक्र जरूरी है। पहला स्वर्णिम चतुर्भुज योजना, अटली जी ने देश के हर कोने को सड़क मार्ग से जोड़ने की पहल की। ये योजना देश के चार महानगरों दिल्ली, मुम्बई, कोलकाता और चेन्नई को एक मार्ग से जोड़ने वाली थी, जिसने देश के विकास को एक नई रफ़्तार दी।
वहीं देश की नदियों को जोड़ने की योजना भी उन्होंने बनाई और उसका ख़ाका भी तैयार किया। अपनी इस योजना के लिए उनको कई संगठनों के विरोध का भी सामना करना पड़ा, लेकिन अटल तो अटल ही रहे। अटल जी ने संचार क्रांति को भी एक नई रफ़्तार दी और उसे आम लोगों तक पहुंचाया। 1999 में अटल जी की नई टेलिकॉम पॉलिसी ने इसको आगे बढ़ाया।
देश के आंतरिक सुरक्षा और आतंकवाद के ख़िलाफ़ लड़ाई भी अटल जी की बड़ी प्राथमिकताओं में रही। खासकर 13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए हमले के बाद उन्होंने नए क़ानून की कवायद तेज़ की। आतंकवाद के ख़िलाफ़ बेहद सख़्त क़ानून पोटा वाजपेयी सरकार के दौरान ही आई। हालांकि इस क़ानून के आते ही इसका विरोध शुरू हो गया, लेकिन अटल जी अपने फ़ैसले पर अटल रहे। इस क़ानून के तहत ना सिर्फ़ कई संगठनों पर पाबंदी लगाई गई, बल्कि हज़ारों लोगों पर केस दर्ज हुए और सैकड़ों की गिरफ़्तारी हुई।
विपक्ष के साथ संबंधों को लेकर अटल जी को हमेशा याद किया जाएगा। यही वजह है कि उन्हें राजनीति का अजातशत्रु कहा जाता है। अटल जी से जो जब भी मिला, उनका ही हो गया। विपक्ष में रहते हुए भी उनके संबंध सत्ता पक्ष से बेहतर बने रहे। जिसकी बड़ी वजह ये रही कि उन्होंने सत्ता में सिर्फ़ बुराई खोजने की कोशिश नहीं की।
गलत नीतियों का विरोध और सही नीतियों की प्रशंसा करने वाले अटल जी सबके प्रिय रहे। अटल जी ने दल से ऊपर उठकर विरोधी नेताओं की तारीफ़ करने में भी कोई गुरेज नहीं किया। राजीव गांधी को श्रेय देना इनमें से ही एक है। जब एक इंटरव्यू के दौरान अटल जी ने इस बात का जिक्र किया था कि उनकी बीमारी के वक़्त राजीव गांधी ने विदेश में उनका इलाज कराया, जिसके लिए वो उनके एहसानमंद हैं।
एक गंभीर राजनीतिज्ञ वाले अटल अपनी कविताओ के लिए भी बेहद लोकप्रिय रहे। जीवन की गहराइयों से लेकर राजनीति पर कटाक्ष तक अटल की कविताएं हमेशा प्रासंगिक रहीं और रहेंगी, वैसे ही जैसे अटल हमेशा प्रासंगिक और जीवंत रहेंगे हम सभी में। तो आप भी अटल जी की इन पंक्तियों के साथ फिर से स्मरण कीजिए राजनीति के अजातशत्रु अटल जी को।
कौरव कौन, कौन पांडव,
टेढ़ा सवाल है|
दोनों ओर शकुनि का फैला
कूटजाल है|
धर्मराज ने छोड़ी नहीं
जुए की लत है|
हर पंचायत में
पांचाली अपमानित है|
बिना कृष्ण के आज
महाभारत होना है,
कोई राजा बने,
रंक को तो रोना है|
-आनंद दुबे, प्रदेश प्रवक्ता, बीजेपी (यूपी)
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