प्रधान पति-पार्षद पतिः ये क्या बला हैं जो महिलाओं को आगे ही नहीं आने दे रहे
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एसपी सिंह
आगरा। देश के विकास में महिलाओं की भागेदारी बढ़ाने के लिए निकायों और पंचायतों में अपने प्रधानमंत्री काल में राजीव गांधी ने आधी आबादी को आरक्षण दिया था। महिलाओं को आरक्षण मिलने के साढ़े तीन दशक बाद भी क्या महिलाओं को उनका हक मिल पाया है? शायद नहीं।
हां, इतना जरूर हुआ है कि प्रधान पति, ब्लाक प्रमुख पति, पार्षद पति सभासद पति, नगर पालिका चेयरमैन पति नाम के शब्द प्रचलन में आ गए हैं। सही बात यह है कि ये पति ही हैं जो महिलाओं को आगे नहीं आने दे रहे। पुरुष सत्तात्मक सोच अभी भी महिलाओं की राह की सबसे बड़ी बाधा बनी हुई है।
निकाय या पंचायतों की सीटें जब तक पुरुषों के लिए आरक्षित रहती हैं, तब तक तो वे पूरे अधिकार के साथ कुर्सी पर बैठते ही हैं। वही सीट महिला के लिए आरक्षित होने पर वे अपनी पत्नी को आगे कर देते हैं। निकायों और और पंचायतों के पदों पर महिलाएं चुन तो जाती हैं, लेकिन कुर्सी अप्रत्यक्ष रूप से उनके पति के पास ही रहती है। निर्वाचित महिला प्रतिनिधि आवश्यक कागजातों पर हस्ताक्षर करने से ज्यादा नहीं बढ़ पाई हैं पिछले 35 सालों में।
हैरानी तो यह जानकर होती है कि सरकारी तंत्र ने भी प्रधान पति, पार्षद पति नामक शब्दों को एक प्रकार से मान्यता दे रखी है। सरकारी कार्यक्रमों में कर्मचारियों और अधिकारियों की मौजूदगी में प्रधान पति, पार्षद पति मंचों पर विराजमान रहते हैं। कार्यक्रमों के दौरान इनका संबोधन भी प्रधान पति, पार्षद पति के रूप में होता है।
नवीन और हेमलता ने पार्षद पतियों पर लगाई थी रोक
सवाल ये है कि प्रधान पति या पार्षद पति किस हैसियत से सरकारी बैठकों में मौजूद रहते हैं। जनता ने उन्हें तो अपना प्रतिनिधि नहीं चुना होता है। निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि को क्यों उसके हक से वंचित कर दिया जाता है, वह भी नारी सशक्तिकरण के दौर में।
आगरा नगर निगम के पिछले कुछ काल की बात करें तो यहां निर्वाचित हुई महिला पार्षद बहुत कम फ्रंट पर दिखती रही हैं। वे नाम भर की पार्षद रहीं। पार्षद के सारे काम उनके पति ही निपटाते रहे हैं। नवीन जैन के मेयर काल में नगर निगम सदन के अधिवेशनों तक में पार्षद पति पहुंच जाया करते थे। नगर सदन में पार्षद की सीट पर तो महिला पार्षद ही बैठा करती थीं, लेकिन उनके पति सदन में ही पीछे की सीटों पर आकर बैठ जाते थे।
पिछले सदन में मधु नगर की पार्षद रहीं लक्ष्मी शर्मा, ताजगंज की पार्षद राधिका अग्रवाल, विजय नगर कालोनी की पार्षद नेहा गुप्ता, पार्षद प्रियंका प्रजापति समेत कई अन्य महिला पार्षदों के पति नगर निगम सदन के अधिवेशन में अपनी पार्षद पत्नियों के साथ नजर आते थे।
बसपा के पार्षदों ने पार्षद पतियों की सदन में मौजूदगी पर सवाल उठाए तो तत्कालीन मेयर नवीन जैन ने पतियों के प्रवेश पर रोक लगा दी थी। इसके बाद नगर निगम की बैठकों में तो महिला पार्षद आने लगीं, लेकिन नगर निगम के विभिन्न विभागों में जन समस्याओं को लेकर अधिकारियों से मिलने और जनता के बीच सक्रियता जैसे काम पतियों के हाथ में ही बना रहा।
इसी प्रकार भाजपा पार्षद दल की बैठकों में भी महिला पार्षदों के साथ उनके पति नजर आते थे। कई बार तो महिला पार्षद की जगह उनके पति बैठक में भाग लेने पहुंच जाते थे। कुल मिलाकर निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधि आगे नहीं आ पातीं। बहुत सी महिला जनप्रतिनिधि इसलिए भी पतियों को आगे रखती हैं क्योंकि उन्हें डर लगता है कि जानकारी के अभाव में सरकारी तंत्र उनसे कोई गलत फैसला न करा ले।
मौजूदा मेयर हेमलता दिवाकर कुशवाह का कार्यकाल शुरू होने के प्रारंभिक दिनों में भाजपा पार्षद दल की बैठकों में महिला पार्षदों के पति पहुंचते थे, लेकिन महापौर ने इस सख्त आपत्ति जताते हुए इस पर बैन लगा दिया था। इसके बाद से महिला पार्षदों को ही बैठक में भाग लेने की अनुमति है, उनके पतियों को नहीं।
सरकारी कमेटी पहुंच रही तह तक
निर्वाचित महिला जनप्रतिनिधियों को उनके हक न मिलने का मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंच चुका है। इस सिलसिले में दायर हुई एक जनहित याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार का ध्यान खींचा। कोर्ट के आदेश पर सरकार ने इसके कारण जानने के लिए एक कमेटी भी बनाई है, जो हर राज्य का दौरा कर चुनी हुई महिला जनप्रतिनिधियों से मुलाकातें कर रही है।
इस समिति के सामने जो कारण आ रहे हैं, वे चौंकाते हैं। एक वजह यह सामने आ रही है कि महिला को अचानक चुनाव मैदान में उतरना होता है। उनकी खुद की तो कोई इच्छा नहीं होती लेकिन पति के कहने पर वे चुनाव लड़ जाती हैं। पति के प्रयासों से ही वे जीत पाती हैं।
चूंकि उन्हें पहले से कोई अनुभव नहीं होता है, इसलिए वे चुने जाने के बाद भी घर के भीतर रहने वाली भूमिका में ही रहना पसंद करती हैं। शायद वे जानती हैं कि पांच साल का कार्यकाल खत्म होने के बाद भी तो उन्हें घर के भीतर वाली भूमिका में ही आना है, इसलिए पार्षद या प्रधान पद के दायित्व वे अपने पतियों को ही निभाने देती हैं।
ऐसी महिला जनप्रतिनिधियों की भूमिका सरकारी कागजातों या चेक पर हस्ताक्षर करने तक सीमित होकर रह जाती है। ग्राम पंचायत की खुली बैठकों, अधिकारियों के साथ की बैठकों और अन्य सरकारी कार्यक्रमों में महिला प्रधान या पति की नुमाइंदगी उनके पति कहते हैं, जो खुद को गर्व के साथ प्रधान पति, पार्षद पति, ब्लाक प्रमुख पति, चेयरमैन पति बताते हैं।
लवानिया ने दिया था चरणबद्ध आरक्षण का सुझाव
निकायों और पंचायतों में महिलाओं की भागेदारी बढ़ाने के लिए जिस समय केंद्र सरकार के स्तर पर मंथन चल रहा था, उस समय तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने देश भर के महापौरों को बुलाकर उनके साथ भी इस मुद्दे पर चर्चा की थी। उस समय आगरा के मेयर रमेश कांत लवानिया थे।
लवानिया ने तब अपना मत रखा था कि महिलाओं को उनके अधिकार तो दिए जाएं, लेकिन एक साथ एक तिहाई आरक्षण देने के बजाय इसे तीन चरणों में क्रमबद्ध तरीके से 33 प्रतिशत तक ले जाया जाए। लवानिया ने इसके पीछे तर्क दिया था कि महिलाएं इस जिम्मेदारी को संभालने के लिए अभी प्रशिक्षित नहीं हैं।
उन्हें इस तरह के दायित्वों को निभाने का अनुभव भी नहीं है। बगैर जागरूकता और प्रशिक्षण के उन्हें सीधे तौर पर पदों पर बैठा दिया जाएगा तो वे शोपीस बनकर रह जाएंगी। रमेश कांत लवानिया आज इस दुनिया में नहीं हैं, लेकन साढ़े तीन दशक बाद उनकी उस समय कही गई बात सच साबित हो रही है। महिलाओं को आरक्षण तो मिल गया, लेकिन सही अर्थों में वे अभी तक अपने बूते अपने दायित्व का निर्वहन नहीं कर पा रहीं।
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