मीडियाः भटकाव या सामयिक बदलाव?
ब्रज खंडेलवाल भारतीय मास मीडिया की वर्तमान स्थिति रोचक भी है और चिंताजनक भी। यह एक ऐसा समय है जब मीडिया अपने मौलिक लक्ष्यों से भटक गया है, क्योंकि मेनस्ट्रीम मीडिया पश्चिमी संस्कृति से पोषित और प्रेरित, आम भारतीयों से कटता जा रहा है। निम्न-गुणवत्ता, उपभोक्तावादी और अश्लील सामग्री को बढ़ावा दे रहा है।
आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाने वाला माध्यम अब नकारात्मकता और असंवेदनशीलता का प्रतीक बनता जा रहा है। लोकतंत्र के स्तंभों में से एक के रूप में मीडिया की भूमिका न केवल जानकारी प्रदान करना है, बल्कि समाज के सकारात्मक निर्माण में योगदान देना भी है। हालांकि, आज, इस जिम्मेदारी को छोड़ दिया गया है, और मीडिया व्यावसायिक हितों के जाल में फंस चुका है। यदि यह प्रवृत्ति जारी रही तो सभ्य, सुसंस्कृत और सहिष्णु समाज की स्थापना करना कठिन हो जाएगा।
वर्तमान में इलेक्ट्रॉनिक और डिजिटल मीडिया ने आदर्शवादी मूल्यों की उपेक्षा करते हुए व्यावसायिक मोड़ ले लिया है। जहां तक समाचार पत्रों का प्रश्न है, व्यवसाय प्रबंधकों और विज्ञापन विभागों ने संपादकों को बेदखल कर दिया है। इससे वैचारिक धार कुंद हुई है। एक जमाना था जब अखबारों की पहचान उनके संपादकों से होती थी, जो रोल मॉडल भी होते थे। फ्रैंक मॉरिस, बीजी वर्गीस, कुलदीप नैयर, खुशवंत सिंह, रामा राव, प्रभाष जोशी, अज्ञेय, धर्मवीर भारती, शंकर आदि। आज के अखबारों के संपादकों के नाम भी नहीं मालूम रहते।
दूरदर्शन वाले दिन लद गए। आज भारतीय मीडिया बदल चुका है। चीखने चिल्लाने वाले एंकर्स ब्रांड एंबेसडर बन चुके हैं। खुलकर पक्ष लेना, अब नीति बन चुकी है। पुराने संस्कारों, आजाद ख्यालों वाले पत्रकार लुप्त प्रजातियों की लिस्ट में शामिल हो चुके हैं।
पुराने पत्रकार मानते हैं कि मीडिया को अपनी जिम्मेदारी समझनी चाहिए और हमेशा जनहित को प्राथमिकता देनी चाहिए। हाल ही में कई राज्य सरकारों ने अखबारों, खासकर सोशल मीडिया प्लेटफॉर्मों को अपनी भूमिकाओं में तटस्थता और निष्पक्षता सुनिश्चित करने की चेतावनी दी है। साथ ही समाज के विभिन्न वर्गों ने विभिन्न कारणों से प्रेस के प्रति असंतोष व्यक्त किया है।
यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि इसकी बढ़ती शक्ति और पहुंच के कारण मास मीडिया ने कुछ अजीब, गैर-पारंपरिक भूमिकाएं निभानी शुरू कर दी हैं। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर जिस तरह का कंटेंट परोसा जा रहा है, उससे हमले तेज हो गए हैं। इसके पीछे कारण यह है कि पाठक या उपभोक्ता अब सक्रिय रूप से भाग ले रहे हैं और कुछ पाठकों की भागीदारी भी बढ़ गई है। सिटीजन जर्नलिस्ट, नई टेक्नोलॉजी की वजह से काफी सक्रिय हैं, लेकिन फिल्टर्स न होने की वजह से इसके खतरे भी बहुत हैं।
अन्य व्यवसायों की तरह, भारतीय मीडिया भी परिवर्तन की प्रक्रिया से गुजर रहा है और शायद यह इसकी रोमांचक परिवर्तन प्रक्रिया है। स्वाभाविक रूप से कुछ लोग इस बारे में चिंतित हैं। पुरानी पीढ़ी इस प्रक्रिया को पत्रकारिता में गिरावट के रूप में देखती है और पत्रकारिता के आदर्शों के बिगड़ने और भ्रष्टाचार के कई उदाहरण प्रदान करती है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि हमारे विचार और प्राथमिकताएं बदल गई हैं। हमारा मीडिया 1947 की मिशनरी मानसिकता से खुद को मुक्त करने के लिए संघर्ष कर रहा है और धीरे-धीरे लाभ कमाने वाली औद्योगिक गतिविधियों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है।1970 के दशक तक, प्रेस की भूमिका मुख्य रूप से विपक्षी थी। उस समय मीडिया प्रतिष्ठान न केवल पूंजीपति वर्ग के हितों की ढाल था, बल्कि विपक्ष की भूमिका भी निभाता था।
आज भी प्रेस निरंतर सतर्कता के माध्यम से नागरिक समाज को मजबूत करता है और गलत कामों को उजागर करके सत्ता प्रतिष्ठानों को चुनौती देता है।
इसमें कुछ भी गलत नहीं है। भारत एक मुक्त और खुला समाज है। प्रत्येक समूह को वैध साधनों के माध्यम से अपनी विचारधारा को बढ़ावा देने का अधिकार है, लेकिन पिछले 30 वर्षों में, विशेष रूप से 90 के दशक के उदारीकरण और वैश्वीकरण की प्रक्रिया के बाद जो हुआ, उसने सभी को आने वाली खतरनाक स्थिति के बारे में चेतावनी दी है और चिंताएं जताई हैं।
यदि मीडिया का एक बड़ा हिस्सा वैश्विक पूंजीवाद द्वारा समर्थित वाणिज्यिक संस्कृति के साथ अनुबंध करता है तो मीडिया और जनता के बीच गिरते संबंधों पर कौन ब्रेक लगा सकता है? यह एक ऐसा सवाल है जो लोगों के अधिकारों के लिए लड़ने वाले सामाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ताओं के लिए एक प्रमुख चिंता का विषय बन गया है।
व्यावसायिक गतिविधियों की बढ़ती भूमिका ने पत्रकारिता को लोगों की आवाज बनने के अपने प्राथमिक लक्ष्य से दूर कर दिया है, जिससे मीडिया में नकारात्मक प्रवृत्तियों में वृद्धि हुई है।
अखबारों के संपादकों पर आरोप है कि वे विज्ञापन डाटा और फंडर्स के हितों के हिसाब से कंटेंट तैयार करते हैं। यह प्रवृत्ति इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में अधिक दिखाई देती है। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में टीआरपी के प्रति जुनून है, जो भ्रामक और अवांछनीय जानकारी प्रस्तुत करने, तथ्यात्मकता की उपेक्षा करने और दर्शकों के सामने ऐसी सामग्री पेश करने से हासिल किया जाता है।
हाल के वर्षों में हुई तीन घटनाओं ने हमें हिलाकर रख दिया और हमारा ध्यान इस तथ्य की ओर खींचा है कि टेलीविजन माध्यम गंभीर मानवीय परिस्थितियों की परवाह किए बिना, टीआरपी लाभों के लिए अपने रास्ते से भटक गया है। पहले मामले में पटियाला में एक बिजनेसमैन ने खुद को आग लगा ली और कैमरे के सामने दम तोड़ दिया, लेकिन कोई भी उसे बचाने के लिए आगे नहीं आया।
दूसरे मामले में मध्य प्रदेश में आर्थिक तंगी से जूझ रहे परिवार के सदस्यों ने कैमरे के सामने जहर खा लिया और उनकी मौत हो गई। गुजरात के सूरत में हुई तीसरी घटना में एक युवा लड़की को उसके कष्टों और कठिनाइयों की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए उसके अंत:वस्त्र पहनकर सड़कों पर चलने के लिए कहा गया।
लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए इन घटनाओं को व्यवस्थित रूप से अंजाम दिया गया। अधिकांश मीडियाकर्मियों का मानना है कि यह स्वतंत्रता का दुरुपयोग है। ये पीपली लाइव सिंड्रोम मीडिया के सही दिशा में अग्रसर होने में बाधा बनेंगे।
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