भारत में आर्थिक सुधारों के जनक थे मनमोहन

नई दिल्ली। पूर्व प्रधानमंत्री और कांग्रेस नेता मनमोहन सिंह का आज रात निधन हो गया। वह 92 साल के थे। उन्होंने दिल्ली के एम्स में आखिरी सांस ली। वह काफी दिनों से बीमार थे। मनमोहन सिंह साल 2004 से 2014 तक दो बार देश के प्रधानमंत्री रहे। मनमोहन सिंह को भारत में आर्थिक उदारीकरण और आर्थिक सुधारों का जनक भी कहा जाता है। प्रधानमंत्री पद संभालने से पहले वह वित्त मंत्री और रिजर्व बैंक के गवर्नर भी रह चुके थे।

Dec 26, 2024 - 23:09
 0
भारत में आर्थिक सुधारों के जनक थे मनमोहन


विदेशी कंपनियों को दी मंजूरी
मनमोहन सिंह 90 के दशक में पीवी नरसिम्हा राव सरकार में देश के वित्त मंत्री थे। उस समय देश अर्थव्यवस्था से जूझ रहा था। भारत के पास विदेशी मुद्रा का भंडार मात्र 5.80 अरब डॉलर था। इससे सिर्फ 15 दिनों का ही आयात किया जा सकता था। अगर 15 दिनों बाद भारत को दूसरे देश से दवाई, पेट्रोलियम आदि की जरूरत पड़ती तो उसे खरीदा ही नहीं जा सकता था। कह सकते हैं कि भारत कंगाल जैसी स्थिति में था। ऐसी स्थिति के बाद भारत ने आईएमएफ और यूरोपीय देशों से लोन की मांग की।

हालांकि इस दौरान आईएमएफ ने एक अजीब शर्त रख दी। वह यह कि भारत को लोन तभी मिलेगा जब वह देश में विदेशी कंपनियों को आने देगा। ऐसी ही कुछ शर्त यूरोपीय देशों ने भी लगा दी थी। इनका कहना था कि भारत में न केवल विदेशी कंपनियां काम करेगी बल्कि प्राइवेट और सरकारी कंपनियां भी चलेंगी। इसे लेकर सरकार में काफी विचार-विमर्श हुआ और अंत में इसे मंजूरी दे दी। इससे भारत में विदेशी कंपनियों के द्वार खुल गए और भारत को लोन भी मिल गया।

एलपीजी मॉडल ने बदली देश की तस्वीर
90 के दशक में भारत सरकार मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एलपीजी (उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण) मॉडल लेकर आई। इस मॉडल के तहत भारत सरकार ने उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण को बढ़ावा दिया। इससे विदेशी कंपनियों के साथ प्राइवेट कंपनियों को भी भारत में काम करने का मौका मिल गया।

क्या है एलपीजी का मतलब?
उदारीकरण : सरकार ने कारोबार के नियमों को उदार बनाया। कारोबार में सरकारी हस्तक्षेप को कम किया और मार्केट सिस्टम पर निर्भरता को बढ़ाया। उदारीकरण के बाद कारोबार की गतिविधियों को सरकार की जगह बाजार तय करने लगा।

निजीकरण : सार्वजनिक स्वामित्व की कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी कम होनी शुरू हो गई। सरकार का हिस्सा प्राइवेट कंपनियों को बेचे जाने लगा। इस कारण आज भी ऐसी कई खबरें आती हैं जिनमें पता चलता है कि सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी प्राइवेट कंपनियों को बेची गई।

वैश्वीकरण : विदेशी कंपनियों के रास्ते भारत में खोल दिए गए। अर्थव्यवस्थाओं की दूरी को खत्म कर दी गई। वस्तुओं एवं सेवाओं के एक देश से दूसरे देश में आने और जाने के अवरोधों को भी खत्म कर दिया गया।

बैंकों का हुआ विस्तार
उदारीकरण के बाद देश में कई बदलाव हुए। साल 1991 में तत्कालीन सरकार ने कस्टम ड्यूटी को 220% से घटाकर 150% किया। बैंकों पर आरबीआई की लगाम भी ढीली की गई। इससे बैंकों को जमा और कर्ज पर पर ब्याज दर और कर्ज की रकम तय करने का अधिकार मिल गया। इसके अलावा नए प्राइवेट बैंक खोलने के नियम भी आसान किए गए। इसका नतीजा यह हुआ कि देश में बैंकों का विस्तार होने लगा।

लाइसेंस राज खत्म हुआ
मनमोहन सिंह के उदारीकरण के बाद केंद्र सरकार ने कई नियमों में बदलाव किए। सबसे बड़ा बदलाव देश में लाइसेंस राज को लगभग पूरी तरह से खत्म करना था। सरकार ने कई फैसले बाजार पर ही छोड़ दिए। इनमें किस चीज का कितना प्रोडक्शन होगा और उसकी कितनी कीमत होगी जैसे फैसले भी शामिल थे। उस समय सरकार ने करीब 18 इंडस्ट्रीज को छोड़कर लगभग सभी के लिए लाइसेंस की अनिवार्यता को खत्म कर दिया था।

What's Your Reaction?

like

dislike

love

funny

angry

sad

wow