मजदूर की बेटी ने साइकिल से नापा पूरा देश
-सीपी सिंह सिकरवार- मथुरा। मध्य प्रदेश के गांव नाटाराम (राजगढ़) में एक मजदूर की 26 साल की जुझारू बेटी आशा अपनी एक साईकिल के साथ आजकल मथुरा में स्कूल-कालेज के छात्रों से संवाद करते हुए अपनी हजारों किलोमीटर लम्बी रोमांचक यात्रा के संस्मरण सुनाकर देश प्रेम का जज़्बा पैदा कर रही है।
-साइकिल से अकेले देश भ्रमण पर निकली मध्य प्रदेश की आशा मथुरा पहुंची, आगरा भी आएगी,
-पहले चरण में 30 हजार किलोमीटर और दूसरे चरण में 26 हजार किलोमीटर साइकिल चला चुकी
भारत की पहली सोलो साइक्लिस्ट आशा ने 24 जून 2024 को कन्याकुमारी से अपनी भारत यात्रा शुरू की थी। 26 जुलाई को कारगिल पहुँचकर कारगिल दिवस में हिस्सा लिया और फिर सियाचिन, लेह-लद्दाख, मनाली, देहरादून और दिल्ली होते हुए मथुरा पहुंची है।
चेहरे पर गजब का उत्साह और आत्मविश्वास से लबरेज आशा यहां से आगरा, ग्वालियर होते हुए अपने गाँव नाटाराम जाएगी, जहां उसके स्वागत के लिए उसके गांव वाले पलक पावड़े बिछाए अपनी विलक्षण बेटी का इन्तजार कर रहे हैं।
सन 2022 में आशा ने अपनी पहली यात्रा को सम्पूर्ण भारत यात्रा का नाम दिया था। करीब 30 हजार किलोमीटर की दूरी को नापा था। वर्तमान यात्रा में वह 26 हजार किलोमीटर का 'सुहाना सफर' फिर से तय कर चुकी है। दोनों यात्राओं में वह 26 राज्यों से गुजरते हुए 25 मुख्यमंत्रियों, 28 राज्यपालों, सेना के तीनों अध्यक्षों के साथ लाखों स्कूली बच्चों, महिलाओं से मिलकर 'भारत देश महान' और महिला सशक्तिकरण का संदेश दे चुकी है।
भारतीय सेना के तमाम अधिकारी जिनसे वह मिली है, आशा के कमाल के जज्बे और विचारों को देख-सुन कर इतने प्रभावित हैं कि मथुरा में ही नहीं, अन्य उन शहरों में जहां मिलिट्री बेस हैं, आशा के सम्मान और सुविधा का भरपूर इंतजाम कर रहे हैं।
कल मैंने इस साईकिल यात्री आशा को जानने-समझने का फैसला लिया तो एक घंटे की बैठक में न जाने कितनी बार भावुक हुआ। मुझे लगा कि आशा के अब तक के जीवन की कहानी सुन कोई आमिर खान सरीखा बॉलीवुड स्टार एक ऐसी फिल्म बना सकता है जो नौजवानों, महिलाओं को शानदार सन्देश देने में पर्याप्त होगी।
मैंने पूछा, '' एक गांव में रहते हुए आपको भारत यात्रा की कैसे सूझी ?''
आशा धाराप्रवाह बोलती गई, '' हमारी आसपास की दुनिया और निजी परिस्थितियां ही हमें रास्ता सुझाती हैं। पिताजी थे नहीं, मां ने मुझे मजदूरी कर पाला। पांच किलोमीटर रोजाना पैदल चलकर स्कूल जाती थी, जब सात साल की थी। स्कूल में दौड़ना सीखा। आठवीं में थी तो धावक बनी, नेशनल खेला। बीस बार मैराथन में भाग लिया। इस दौड़ में दूसरी, तीसरी बाजी मारती तो पैसा मिलता। इस पैसे को जोड़ा और अपने मकान को बनाने के लिए न मजदूर बुलाया, न बेलदार। खुद ईंटें उठाई, सीमेंट घोला और फावड़ा चलाया। तब मां को मिल सकी एक छत।''
'' दो चरणों में पचास हजार किलोमीटर से ज्यादा की साइकिल यात्रा के दौरान न जाने कितने लोगों से मिलने का अवसर मिला है। विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओँ से वास्ता पड़ा है। हर राज्य की अपनी खूबसूरती दिखाई दी। मैंने तो इन यात्राओं में पाया ही पाया है। संस्मरणों का अद्भुत खजाना पाया है, जिन्हे मैंने डायरी में लिखा है और जल्द ही एक पुस्तक के रूप में लिखूंगी।''
'' आप अकेले चलती हैं दुर्गम रास्तों पर, खतरे भी आते होंगे?''
" मंजिल दिखाई देती है तो दिक्कतें महसूस नहीं होतीं। मंजिल है तो प्रॉब्लम नहीं, प्रोब्लॉम है तो मंजिल नहीं।" आशा ने मुस्कराकर कहा।
पिछले दो दिनों से मथुरा के स्कूल-कालेजों में इस विलक्षण साइकिल यात्री आशा के सम्मान की झड़ी लगी हुई है। नौजवानों के बीच आशा जिस आत्मविश्वास और विनम्रता के साथ बोलती है, उसे सुन शिक्षक भी दातों तले अंगुली दबाने को मजबूर हो जाते हैं।
मथुरा के जिलाधिकारी और पुलिस अधीक्षक भी आशा की बहादुरी और देश प्रेम को देख चकित हैं।
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