करणी सेना बनाम सुमनः जातिवादी सियासत के शिकंजे से भारत के संसदीय लोकतंत्र की दिशा पर संकट
आगरा में करणी सेना और समाजवादी पार्टी (सपा) के कार्यकर्ताओं के बीच हुआ शक्ति प्रदर्शन केवल स्थानीय असहमति नहीं, बल्कि जातिवादी राजनीति की गहरी जड़ों का एक और उदाहरण है। यह घटना केवल राजनीतिक प्रतिस्पर्धा नहीं, बल्कि सामाजिक सौहार्द्र और लोकतांत्रिक मूल्यों को भी चुनौती देती है। जब सियासत सामाजिक ताने-बाने को विभाजित करने लगे, तो वह लोकतंत्र के स्वस्थ भविष्य के लिए खतरा बन जाती है।

आगरा में करणी सेना और समाजवादी पार्टी (सपा) के कार्यकर्ताओं के बीच हाल ही में हुआ शक्ति प्रदर्शन सिर्फ एक स्थानीय घटना नहीं थी, बल्कि यह भारतीय लोकतंत्र की गहराई तक फैले जातिवादी सियासत के ज़हर की बानगी है।
राज्यसभा सांसद रामजी लाल सुमन के समर्थन में सपा का हुजूम और करणी सेना का विशाल प्रदर्शन, दोनों ही अपने-अपने 'वोट बैंक' को साधने की कवायद नज़र आए। यह राजनैतिक टकराव न केवल सामाजिक सौहार्द्र को चोट पहुंचाता है, बल्कि भारत के संसदीय लोकतंत्र की पटरी को भी डगमगाता है।
भारत जैसे बहुलतावादी राष्ट्र में लोकतंत्र का आधार समानता, सामाजिक न्याय और प्रतिनिधित्व है। परंतु पिछले कुछ दशकों में यह लोकतंत्र जातिगत और धार्मिक पहचान की सियासत में उलझ कर रह गया है। मंडल आयोग की सिफारिशों के लागू होने के बाद ओबीसी वर्ग को राजनीतिक ताकत तो मिली, लेकिन इससे जाति एक स्थायी सियासी पहचान बन गई।
सत्ता की कुर्सी अब नीतियों या सुशासन की योग्यता पर नहीं, बल्कि जातीय गणनाओं पर निर्भर हो गई है। भारतीय जनता पार्टी जहां हिंदुत्व को केंद्र में रखकर चुनावी रणनीति बनाती है, वहीं सपा, बहुजन समाज पार्टी (बसपा), और द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (डीएमके) जैसे क्षेत्रीय दल विशिष्ट जातीय या धार्मिक समूहों पर केंद्रित रहते हैं। इससे लोकतांत्रिक समरसता खंडित होती है।
लोकतंत्र में विपक्ष की भूमिका महज़ सरकार की आलोचना तक सीमित नहीं होनी चाहिए, बल्कि उसे वैकल्पिक नीतियां प्रस्तुत करने वाला, जवाबदेही सुनिश्चित करने वाला और जनता की आवाज़ बनने वाला मंच होना चाहिए। परंतु अफसोस, आज के विपक्षी दल नीतियों की बहस की बजाय जाति, धर्म और व्यक्तिवाद की राजनीति में उलझे हैं। जब विपक्ष का स्वर बंटा हुआ और भावनात्मक मुद्दों पर केंद्रित होता है, तो वह जनता का भरोसा खो बैठता है।
ज्यादातर विपक्षी दलों में आंतरिक लोकतंत्र का अभाव है। सपा में यादव परिवार का वर्चस्व, बसपा में मायावती का एकछत्र नियंत्रण और डीएमके में करुणानिधि परिवार की सत्ता, यह सब बताता है कि इन दलों की राजनीति व्यक्तियों और परिवारों के इर्द-गिर्द घूमती है। विचारधारा का स्थान जातिगत गणनाओं ने ले लिया है और नतीजा यह है कि नए नेताओं, युवाओं और प्रतिभाशाली कार्यकर्ताओं के लिए कोई जगह नहीं बचती। ज़मीनी आंदोलन, विचारोत्तेजक बहसें और नीति निर्माण की क्षमता धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है।
जातिवादी राजनीति ने भारत में वर्गीय चेतना के विकास को बाधित किया है। आर्थिक असमानता, बेरोज़गारी, कृषि संकट जैसे मुद्दे सियासत के हाशिए पर चले गए हैं। भारत में कम्युनिज़्म की असफलता का एक बड़ा कारण यही रहा जब वर्ग के बजाय जाति को प्राथमिक राजनीतिक इकाई बना दिया गया। इससे श्रमिक अधिकार, शिक्षा की समानता, और सार्वजनिक स्वास्थ्य जैसे बुनियादी मुद्दों की अनदेखी होती रही।
आज भारत में 2,500 से अधिक मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल हैं। इनमें से अधिकतर जाति, क्षेत्र या किसी एक व्यक्ति की महत्वाकांक्षा पर आधारित हैं। ये दल चुनावी समय पर अवसरवादी गठबंधन करते हैं, फिर सत्ता में हिस्सेदारी के लिए सौदेबाज़ी करते हैं। इससे लोकतांत्रिक प्रक्रिया में पारदर्शिता और जवाबदेही दोनों प्रभावित होती हैं। संसद और विधानसभाओं में बहसें नीतियों पर नहीं, बल्कि जातीय संवेदनाओं पर केंद्रित हो जाती हैं।
राजनैतिक विचारकों ने समय समय पर ढेरों सुझाव दिए हैं, व्यवस्था परिवर्तन के लिए। कुछ बदलाव ये हो सकते हैं-
राजनीतिक दलों की मान्यता की शर्तें कड़ी हों: जिन दलों को न्यूनतम राष्ट्रीय या राज्य-स्तरीय वोट प्रतिशत नहीं मिलता, उनकी मान्यता रद्द होनी चाहिए। इससे जाति या क्षेत्र आधारित पार्टियों की संख्या घटेगी।
आंतरिक लोकतंत्र लागू हो: हर पार्टी में पारदर्शी चुनाव, नेतृत्व परिवर्तन की प्रक्रिया, और नीतिगत चर्चा को बढ़ावा मिलना चाहिए। वंशवाद और व्यक्तिवाद को सीमित करना ज़रूरी है।
चुनावों को जाति-मुक्त बनाया जाए: जातिगत अपील या नफरत फैलाने वाले भाषणों पर कड़ी कार्रवाई होनी चाहिए। निर्वाचन आयोग को ऐसी पार्टियों के खिलाफ सख्त कदम उठाने चाहिए जो टिकट वितरण में जाति को प्राथमिकता देते हैं।
विचारधारा आधारित राजनीति को बढ़ावा मिले: हर दल का स्पष्ट घोषणापत्र हो और कार्यकर्ताओं के लिए प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएँ, ताकि वैचारिक मजबूती आए।
शैडो कैबिनेट, यानी छाया मंत्रिमंडल की व्यवस्था अपनाई जाए: इससे विपक्ष न केवल आलोचना करेगा बल्कि वैकल्पिक समाधान भी पेश करेगा, जिससे लोकतंत्र को गहराई मिलेगी।
सामाजिक सुधार जरूरी हैं: शिक्षा, रोज़गार, और सामाजिक समावेशन की योजनाएँ जातिगत पहचान को कमजोर कर सकती हैं। जब लोग जाति से ऊपर उठकर नागरिकता और अधिकारों की बात करेंगे, तभी सच्चा लोकतंत्र स्थापित होगा।
जातिवादी सियासत भारत के लोकतंत्र के लिए एक गंभीर चुनौती बन गई है। जब तक विपक्ष अपनी भूमिका को पुनर्परिभाषित नहीं करता, आंतरिक लोकतंत्र को अपनाता, वैचारिक स्पष्टता लाता और वर्गीय मुद्दों पर फोकस करता, तब तक वह एक मजबूत विकल्प नहीं बन सकेगा। भारतीय राजनीति को जाति के बजाय नीति और प्रदर्शन पर आधारित होना होगा।
देश की लोकतांत्रिक यात्रा को अगर पटरी पर लाना है तो अब समय आ गया है कि सभी दल हुकूमत नहीं, ख़िदमत के उसूल पर चलें। वोट बैंक की सियासत से ऊपर उठकर अगर विपक्ष जनता के असल मुद्दों को उठाए, तो ही भारत का लोकतंत्र फल-फूल सकता है।