जीएसटी का पंजीयन युद्ध में विजय जैसा, सात साल में महज डेढ़ करोड रजिस्ट्रेशन
जीएसटी को लागू हुए सात साल से अधिक का समय बीत चुका है, लेकिन केंद्रीय कर विभाग के इसका रजिस्ट्रेशन अभी भी दुरूह बना हुआ है। बीते साल 57 प्रतिशत से अधिक प्रार्थना पत्र रिजेक्ट कर दिए गए। जब व्यापारियों का रजिस्ट्रेशन ही नहीं होगा तो राजस्व कैसे बढ़ेगा।
भारत में ‘ईज आफ डूइंग बिजनेस’ नीति के उद्देश्य से केन्द्र सरकार ने देश में माल और सेवाकर अधिनियम जिसका प्रचलित नाम जीएसटी है, को एक जुलाई 2017 से लागू एवं प्रभावी किया। यह जीएसटी विशेषकर दो भागों में विभाजित किया गया जिसमें एक था केन्द्रीय कर और दूसरा राज्य कर। केन्द्रीय कर विभाग सीधे केन्द्र सरकार के अधीन केन्द्रीय अप्रत्यक्ष एवं सीमा शुल्क बोर्ड से संचालित होता है जबकि राज्यों के स्तर पर राज्य कर विभाग राज्य सरकार के अधीन काम करता है।
सरकार का विचार था कि जीएसटी के अन्तर्गत देश के व्यापारी आसानी से पंजीयन प्राप्त करते हुए उद्योग-व्यापार करें और मासिक रुप से आवश्यक औपचारिकताएं पूरी करते रहें। साथ ही देय कर को सरकारी कोष में जमा करवाकर देश के विकास में योगदान करें। इस व्यवस्था के तहत व्यापारी को जीएसटीएन पंजीयन प्राप्त करने के लिए आनलाईन प्रार्थनापत्र दाखिल कर प्राप्त करना होता है। केन्द्रीय कर अथवा राज्यकर विभाग पंजीयन आंवटित करता है।
प्रश्न यह उठता है कि कि सात वर्षो के बाद भी भारत की आबादी के साक्षेप पूरे देश में मात्र लगभग 1.50 करोड़ ही पंजीयन क्यों हो पाये हैं? इसकी चर्चा होनी आवश्यक है और यह चर्चा केन्द्र और राज्य सरकार मुख्यालयों के स्तर पर होनी चाहिए। सच्चाई यह है कि किसी भी देश की राजस्व वृद्धि के लिए आवश्यक है कि देश के व्यापारी को अप्रत्यक्ष कर प्रणाली से जोड़ा जाए और उसको जोड़ने के लिए आवश्यक है कि वह व्यापारी सम्बन्धित विभाग से अपना पंजीयन प्राप्त करे।
अब चर्चा करते हैं पंजीयन प्राप्त करने के पहले चरण पर। व्यापारी पंजीयन प्राप्त करने के लिए अपने अधिवक्ता के पास जाता है और पंजीयन प्रार्थनापत्र आनलाईन दाखिल करवाता है। दाखिल करने वाले को यह ज्ञात नहीं होता कि दाखिल प्रार्थनापत्र केन्द्रीय कर विभाग के पास जाएगा अथवा राज्य कर विभाग के पास। पंजीयन प्रार्थना पत्र दाखिल करने के पश्चात अब पहला काम प्रारम्भ होता है ‘प्रतीक्षा’ करने का। इस अवधि में यही आशंका बनी रहती है कि कब आपत्ति लगेगी अथवा पंजीयन स्वीकृत होकर आ जाएगा। अब जो हालात बन चुके हैं, उसमें प्रार्थी व्यापारी और उसका अधिवक्ता यह मान बैठा है कि यदि उसके द्वारा दाखिल प्रार्थना पत्र केन्द्रीय कर विभाग में चला गया है तो निश्चित रूप से दाखिल करने की तिथि से 28 से 30 दिन के अंदर आपत्ति आ जाएगी और वह आपत्ति ऐसी होगी जिसका उत्तर देना मुश्किल ही नहीं असंभव होगा।
यह आरोप नहीं है बल्कि सच्चाई है। कहा जाये तो विभाग की सबसे प्रचलित आपत्ति होती है नियम 21 की, जिसमें कहा जाता है कि ‘व्यापार स्थल पर कार्य नहीं होता पाया गया’ या फिर आपत्ति होती है कि प्रार्थना पत्र के साथ दाखिल प्रपत्र आदि ‘पठनीय’ नहीं हैं। या फिर आपत्ति होती है कि प्रार्थी को दिये गये मोबाइल नंबर पर फोन मिलाया, उठाया नहीं। अतः दाखिल पंजीयन प्रार्थना पत्र को कैंसिल करने की संस्तुति की जाती है।’
यह आपत्ति 28 से 30 दिन के अंदर इसलिए लगायी जाती है क्योंकि व्यवस्था के अनुसार दाखिल प्रार्थना पत्र के निस्तारण का 30 दिन का समय निर्धारित है। अब 30 दिन के बाद प्रार्थी को आपत्ति दूर करने का समय नहीं बचता, अतः पंजीयन प्राप्त नहीं होता और थक-हार कर व्यापार प्रारम्भ ही नहीं करता या फिर अपंजीकृत रुप से सरलता से व्यापार करता है और सरकार को राजस्व के नाम पर कुछ नहीं मिलता। इसके विपरीत समय-समय केन्द्र एवं राज्य सरकारों के उच्चाधिकारी अधिनस्थों को निर्देश देते हैं कि पंजीयन अभियान चलाते हुए अधिक से अधिक पंजीयन करायें।
यह जानकर हैरानी होती है कि गत वर्ष केन्द्रीय कर विभाग ने प्राप्त हुए पंजीयन प्रार्थना पत्रों पर पंजीयन आवंटित करने के बजाय रिजेक्ट करने में अधिक रुचि ली। आरटीआई से मिली एक जानकारी के अनुसार पिछले साल पंजीयन रिजेक्शन दर 57.54 प्रतिशत की रही। बावजूद इसके केन्द्रीय कर विभाग के उच्चाधिकारियों ने संभवतः कभी यह समीक्षा नहीं की कि केन्द्रीय कर विभाग के पास कितने पंजीयन प्रार्थना पत्र प्राप्त हुए और उनमें से कितने प्रतिशत पंजीयन आंवटित किये गये तथा कितने प्रतिशत पंजीयन रिजेक्ट किये गए।
अधिकारी यह विचार अवश्य ही व्यक्त करते हैं कि कि दाखिल प्रार्थना पत्र इस आधार पर रिजेक्ट होते हैं क्योंकि बहुत से फर्जी पंजीयन होने का आभास होता है। साथ ही यह भी कहते सुना जाता है कि लोग पंजीयन तो एप्लाई कर देते हैं, लेकिन आवश्यक प्रपत्र आदि सलंग्न नहीं करते। वैसे अधिकारी चाहें तो दाखिल प्रार्थना पत्र बिक्रीकर और वैट की तरह स्थानीय अधिवक्ता से प्रमाणित वाली व्यवस्था लागू कर फर्जी पंजीयन की आशंका को दूर किया जा सकता है।
यदि दाखिल पंजीयन प्रार्थना पत्र में कोई कमी पायी जाती है, जैसे अधिकृत व्यक्ति का नाम, पूर्ण पता, इसके लिए सम्बन्धित प्रमाण आदि को उपलब्ध कराने की अपेक्षा की जानी चाहिए। व्यापार स्थल का भौतिक परीक्षण के लिए एक अलग आधिकारिक टीम का गठन किया जाना चाहिए, जो क्षेत्र में जाकर भौतिक निरीक्षण करते हुए पंजीयन आंवटित करे।
दुःखद स्थिति यह है कि एक तरफ सरकार देश का राजस्व बढ़ाने के लिए प्रयासरत है लेकिन सम्बन्धित विभाग राजस्व बढ़ाने में कैसे असहयोग कर रहा है, इसकी समीक्षा होनी चाहिए। केन्द्रीय कर विभाग के उच्चाधिकारियों से अपेक्षा की जाती है कि प्रति तिमाही समीक्षा करें कि अपलोडेड पंजीयन प्रार्थना पत्रों में से कितने पंजीयन आंवटित हुए, कितने रिजेक्ट हुए और रिजेक्ट होने के पीछे कारण क्या रहा। समीक्षा का बिन्दु यह भी होना चाहिए कि क्या रिजेक्टेट पंजीयन प्रार्थना पत्र में मिलने वाली कमियों का दूर किया जा सकता था, क्योंकि राजस्व का प्रवेश द्वार पंजीयन है। जितने अधिक पंजीयन होंगे, उतना अधिक राजस्व प्राप्त हो सकेगा। विचारणीय यह है कि प्रार्थी की स्थिति तब खराब हो जाती है जब पंजीयन प्रार्थना पत्र एप्लाई करने के बाद व्यापारी अपना व्यापार करने के लिए माल खरीद लेता है परन्तु पंजीयन रिजेक्ट होने के बाद जब कभी यदि विभागीय अधिकारी स्थल पर आ जाता है और अपंजीकृत डीलर के रूप में उस पर धारा-125 का अर्थदंड लगा देता है।
-पराग सिंहल, महासचिव
एसोसिएशन ऑफ टैक्स पेयर्स एंड प्रोफेशनल (नेशनल फोरम)
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