बसपा का भविष्य अनिश्चितता के भंवर में, दलित राजनीति नए मोड़ पर

उत्तर प्रदेश में दलित राजनीति नये मोड़ पर आ खड़ी हुई है। बहुजन समाज पार्टी के लगातार घटते जनाधार और मायावती की सक्रियता में कमी से पार्टी के भविष्य पर सवाल उठने लगे हैं। ऐसे में उभरते दलित नेता सांसद चंद्रशेखर आजाद क्या बसपा का विकल्प बन सकते हैं, एक विश्लेषण।

Mar 20, 2025 - 14:36
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बसपा का भविष्य अनिश्चितता के भंवर में, दलित राजनीति नए मोड़ पर

-बृज खंडेलवाल-

क्या बहुजन समाज पार्टी का विलय कांग्रेस में हो जाना चाहिए या फिर बहन मायावती को भाजपा के NDA से जुड़ जाना चाहिए? क्या छोटी-छोटी क्षेत्रीय पार्टीज का कोई फ्यूचर है? क्या वोट काटू पार्टीज के चुनावी गठबंधन, तेज ध्रुवीकरण के चलते, कभी भाजपा को सत्ता से बाहर करने की हैसियत रखते हैं? पिछले कई चुनावों के परिणामों के संदर्भ में ये सवाल आज प्रासंगिक हो गए हैं।

उत्तर प्रदेश की राजनीति में मौजूदा हालात संकेत दे रहे हैं कि बहुजन समाज पार्टी अपने बलबूते दोबारा सत्ता हथियाने में कामयाब नहीं हो सकती। पार्टी की निरंतर घटती लोकप्रियता ने एक जटिल तस्वीर पेंट कर दी है। 

पारिवारिक कलह और अंतर्विरोध ने बसपा को प्रभावित किया है, जिससे पार्टी संगठन दिशाहीन नजर आ रहा है। पार्टी सुप्रीमो बहन मायावती की ढलती उम्र और स्वास्थ्य के कारण सक्रियता में कमी आ जाने से राजनीति की डगर और कठिन हो गई है।

राजनैतिक विश्लेषक प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी के मुताबिक "वर्तमान में  दलित राजनीति में चंद्रशेखर आजाद का उदय एक नया विकल्प पेश कर रहा है। उनकी करिश्माई नेतृत्व शैली और युवा मतदाताओं के बीच बढ़ती लोकप्रियता ने बसपा को एक नई चुनौती दी है। आजाद की रणनीतियां और सामाजिक न्याय के प्रति उनकी प्रतिबद्धता ने उन्हें दलित समुदाय की आंखों में एक नायक बना दिया है। ऐसे में मायावती की बसपा का दोबारा सत्ता में लौटना, खासकर चंद्रशेखर आजाद के बढ़ते प्रभाव के बीच, फिलहाल संभावित नहीं दिखता। वर्तमान परिदृश्य में बसपा के लिए चुनौतियां बरकरार हैं।"

मायावती  बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की प्रमुख और चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रह चुकीं एक प्रभावशाली नेता,  पिछले कुछ वर्षों में अपनी राजनीतिक ताकत को फिर से मजबूत करने की असफल कोशिशें कर रही हैं। हालांकि, हाल के चुनावी नतीजों और पार्टी के प्रदर्शन को देखते हुए उनके भविष्य को लेकर कई सवाल उठ रहे हैं। राजनैतिक कॉमेंटेटर मिथलेश झा का मानना है कि बहन मायावती का युग ग्रैंड फिनाले के साथ अस्त हो चुका है।

स्मरण रहे "2007 में बसपा ने उत्तर प्रदेश में पूर्ण बहुमत हासिल किया था, जो मायावती के करियर का शिखर था। लेकिन इसके बाद 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा को एक भी सीट नहीं मिली  और 2017 के विधानसभा चुनाव में केवल 19 सीटें आईं। 2022 के विधानसभा चुनाव में पार्टी 12.83% वोट शेयर के साथ सिर्फ 1 सीट जीत पाई। हाल ही में 2024 के उपचुनावों में 7% वोट शेयर के साथ उनका प्रदर्शन और कमजोर हुआ," बताते हैं समाज विज्ञानी टीपी श्रीवास्तव।

मायावती ने अपने भतीजे आकाश आनंद को पहले पार्टी में बड़ी जिम्मेदारी दी, फिर हटाया। यह अनिर्णय और परिवारवाद की छवि उनकी विश्वसनीयता को प्रभावित कर रही है। सेकंड लाइन ऑफ लीडरशिप न होने की वजह से आज बसपा चौराहे पर है  और सुप्रीमो का अनिर्णय की पशोपेश में है। सवाल पूछा जा रहा है कि बहनजी की विरासत को कौन संरक्षित करेगा?

इस बीच कुछ चुनावी विश्लेषक कह रहे है कि चंद्रशेखर आजाद जैसे युवा दलित नेता और उनकी आजाद समाज पार्टी (आसपा) पश्चिमी उत्तर प्रदेश में खासकर जाटव वोटों को आकर्षित कर रही है, जो बसपा सुप्रीमो के लिए उभरती चुनौती है।

इन संकेतों से लगता है कि मायावती का राजनीतिक भविष्य अनिश्चित है। उनकी सफलता इस बात पर निर्भर करेगी कि वह अपनी पुरानी रणनीति को नए समय के हिसाब से ढाल पाती हैं या नहीं, लेकिन वर्तमान में उनकी पार्टी हाशिए पर दिख रही है। बीस साल पहले, यानी 2000 के दशक की शुरुआत में मायावती का दलित वोट बैंक,  उनकी सबसे बड़ी ताकत था, लेकिन अब पकड़ ढीली हो रही है।

पॉलिटिकल आब्जर्वर डॉ विद्या चौधरी के मुताबिक "कांशीराम द्वारा शुरू किए गए बहुजन आंदोलन को बहन मायावती ने आगे बढ़ाया और दलितों को एकजुट कर सत्ता तक पहुंचाया, लेकिन अब स्थिति बदल गई है। पहले बसपा को उत्तर प्रदेश में दलितों (लगभग 20% आबादी) का लगभग एक समान समर्थन मिलता था। 2007 में उनकी सोशल इंजीनियरिंग (दलित+ब्राह्मण+मुस्लिम) ने 30% से ज्यादा वोट दिलाया। लेकिन अब बीजेपी, सपा  और नए दलित नेताओं ने इस वोट बैंक में सेंध लगाई है। 2024 के उपचुनाव में 7% वोट शेयर यह दिखाता है कि उनका कोर वोट भी छिटक रहा है।"

बीजेपी ने कल्याणकारी योजनाओं (जैसे उज्ज्वला, पीएम आवास) और हिंदुत्व के एजेंडे से गैर-जाटव दलितों (पासी, कोरी, वाल्मीकि आदि) को अपने पाले में खींचा है। 2017 में बीजेपी ने 84 में से 70 आरक्षित सीटें जीती थीं, जो बसपा की कमजोरी को दर्शाता है।

कुछ जानकारों का कहना है कि पश्चिमी यूपी में दलित वोट, जो मायावती का गढ़ था,  अब शिफ्ट हो रहा है। साथ ही, दलित समाज में शिक्षा और जागरूकता बढ़ने से इस वर्ग की आकांक्षाएं बदली हैं  और वे अब एक ही पार्टी से बंधे नहीं रहना चाहते।

2019 के लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा गठबंधन को 19.3% वोट मिले और बसपा ने 10 सीटें जीतीं, लेकिन अकेले 2022 में उनका वोट शेयर 12.83% तक गिर गया। यह दर्शाता है कि उनका आधार अब उतना मजबूत नहीं है जितना पहले था।

मायावती का राजनीतिक भविष्य इस समय कमजोर दिख रहा है, और उनकी दलित वोट बैंक अब पहले जैसी एकजुट और मजबूत नहीं रही। बीस साल पहले वह दलितों की निर्विवाद नेता थीं, लेकिन अब बदलते राजनीतिक समीकरण, नए नेताओं का उदय, और बीजेपी की रणनीति ने उनकी पकड़ को ढीला कर दिया है।

 

SP_Singh AURGURU Editor