काला रंग: ब्रह्मांड की सच्चाई और समाज की सोच
"हम काले हैं तो क्या हुआ दिलवाले हैं", बॉलीवुड फिल्मों ने गोरेपन को लेकर इतनी भ्रांतियां पैदा कर दी हैं कि हर दिन टनों फेयर एंड लवली क्रीम खप जाती है। गोरे होने के चक्कर में तरह-तरह के नुस्खे आजमाए जाते हैं। "गोरे रंग पे न इतना गुमान कर…," गोरी तेरा गांव बड़ा प्यारा…। सांवले रंग की वजह से बच्चों के नाम तक कालिया, कालीचरण, भूरा आदि रखे जाते हैं। श्रीकृष्ण भी मैया से पूछते हैं, राधा क्यों गोरी, मैं क्यों काला...? सच में भारतीय समाज में रंगभेद का अभिशाप युगों से चल रहा है।

-बृज खंडेलवाल-
केरल राज्य सरकार की मुख्य सचिव, सारदा मुरलीधरन ने हाल ही में अपनी गहरी रंगत और काली त्वचा के बारे में जो बातें कहीं, वे सुनने और गौर करने लायक हैं। उनकी बातें न सिर्फ़ हमारे सौंदर्य के पैमानों को चुनौती देती हैं, बल्कि हमें यह सोचने पर मजबूर करती हैं कि आखिर हमने "काले रंग" को इतना बदनाम क्यों कर रखा है?
सारदा जी ने कहा, "काले को बुरा क्यों माना जाता है? काला तो ब्रह्मांड का असली रंग है। काला वह रंग है जो हर चीज़ को सोख सकता है। यह ऊर्जा का सबसे ताक़तवर स्रोत है। यह वह रंग है जो हर किसी पर फबता है, चाहे ऑफिस का फॉर्मल ड्रेस हो, शाम की पार्टी की चमकदार पोशाक हो, आंखों का काजल हो या फिर बारिश के बादलों का रंग।"
भारतीय समाज में रंगभेद की समस्या कोई नई नहीं है। सदियों से गोरी त्वचा को "सुंदर" और काली त्वचा को "कमतर" माना जाता रहा है। यह सोच कहां से आई? इसके पीछे कई कारण हैं। कुछ प्राचीन मान्यताएं, कुछ विदेशी आक्रमणकारियों का प्रभाव और कुछ आधुनिक विज्ञापनों की चालाकी।
प्राचीन काल से ही भारत में गोरी त्वचा को "उच्च वर्ग" का प्रतीक माना जाता था। फिर अंग्रेज़ों के शासन ने इस सोच को और बढ़ावा दिया। उन्होंने गोरे लोगों को "श्रेष्ठ" और काले लोगों को "हीन" बताया। यह मानसिकता इतनी गहरी हो गई कि आज भी हमारे समाज में गोरा होना "सफलता की गारंटी" माना जाता है।
प्रोफेसर पारस नाथ चौधरी के मुताबिक, "टीवी और मैगज़ीन्स पर "फेयरनेस क्रीम" के विज्ञापनों ने इस सोच को और पुख़्ता किया है। इन विज्ञापनों में गोरी त्वचा को "सुख, समृद्धि और प्यार" से जोड़कर दिखाया जाता है, जबकि काली त्वचा को "कमतर" और "बदसूरत" बताया जाता है। यह एक सोची-समझी साज़िश है जो लोगों के दिमाग़ में यह बात बैठा देती है कि "गोरा होना ज़रूरी है।"
भारत में आज भी ज़्यादातर लड़कियों को शादी के लिए "गोरी" होने की सलाह दी जाती है। माता-पिता लड़कियों को बचपन से ही यह समझाते हैं कि "रंग साफ़ होगा तो रिश्ता अच्छा मिलेगा।" यह सोच न सिर्फ़ गलत है, बल्कि हज़ारों लड़कियों के आत्मविश्वास को तोड़ देती है, सामाजिक कार्यकर्ता पद्मिनी अय्यर ने कहा।
सारदा मुरलीधरन ने जो कहा है वह सच में विचार करने लायक है। काला रंग ब्रह्मांड का सच है, काला रंग शक्ति का प्रतीक है, यह वह रंग है जो हर रंग को अपने अंदर समा लेता है। काला रंग रहस्यमय है। यह अनंत अंतरिक्ष का रंग है, जिसमें हज़ारों रहस्य छिपे हैं, काला रंग सुंदरता है। काजल की कालिख से लेकर रात के अंधेरे तक, यह रंग हमेशा से मनमोहक रहा है। फिर भी, समाज ने इस रंग को "बुराई" और "अशुभ" का नाम दे दिया। क्या यह सच में सही है?
बदलाव संभव है, लेकिन इसके लिए हमें अपनी सोच बदलनी होगी। लोगों को समझाना होगा कि त्वचा का रंग किसी की काबिलियत या सुंदरता को नहीं तय करता। फिल्मों और विज्ञापनों में गोरी त्वचा को बढ़ावा देना बंद करना होगा। शादी-ब्याह में "रंग" को महत्व देना बंद करना होगा। अध्यापिका, मीरा गुप्ता ने कहा।
सोशल एक्टिविस्ट मुक्ता बेंजामिन कहती हैं, "सारदा मुरलीधरन की बातें न सिर्फ़ एक व्यक्ति की आवाज़ हैं, बल्कि उन हज़ारों लोगों की आवाज़ हैं जो रंगभेद की वजह से हीनभावना का शिकार होते हैं। अगर हम सच में एक बेहतर समाज बनाना चाहते हैं, तो हमें अपनी सोच बदलनी होगी। "
यूथ एक्टिविस्ट माही हीदर मानती हैं, "काला रंग बुरा नहीं, बल्कि ब्रह्मांड का सच है। इसे स्वीकार करें, इसे प्यार करें। जब तक हम अपनी आंखों से रंगभेद की दीवार नहीं हटाते, तब तक हम सच्ची ख़ूबसूरती को नहीं देख पाएँगे।"