गिरते मूल्य और बढ़ती बेशर्मी: समाज की नई तस्वीर
"नंगई" शब्द, जो पहले दिखावे और बेशर्मी का प्रतीक था, आज एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। यह प्रतिस्पर्धा, जिसमें हर कोई एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगा है।
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-बृज खंडेलवाल-
व्हाइट हाउस में डोनाल्ड ट्रंप और ज़ेलेंस्की के बीच हुई जुबानी जंग को देखकर लोगों ने कहा, "समरथ को नहीं दोष गुसाईं"। यह कहावत आज के दौर में सच साबित होती दिख रही है। ज़ेलेंस्की को एक ऐसे कुत्ते की तरह देखा गया, जो न घर का रहा न घाट का। और ट्रंप को उस चालाक बंदर की तरह, जो दो लड़ती बिल्लियों को न्याय दिलाने के बहाने पूरी रोटी हड़प जाता है। यह नज़ारा सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं है, बल्कि पूरी दुनिया में साहित्य, संस्कृति, डिप्लोमेसी और शिष्टाचार की धज्जियां उड़ती दिख रही हैं।
भारत में भी हालात कुछ अलग नहीं हैं। एक राजनीतिक रैली में एक नेता ने अपने प्रतिद्वंद्वी के निजी जीवन पर इतनी अभद्र टिप्पणी की कि सुनने वालों के कान पक गए। टीवी चैनलों पर बहस के नाम पर होने वाली चीख-पुकार और मारपीट ने दर्शकों को निराश कर दिया है। सार्वजनिक स्थानों पर लड़के-लड़कियों के बीच गाली-गलौज का युद्ध छिड़ जाता है।
सोशल मीडिया पर अलग राय रखने वालों को अपमानित करना आम बात हो गई है। पहले शादी-ब्याह में महिलाएं गालियों के रूप में मज़ाक करती थीं, लेकिन आज लैंगिक समता के नाम पर गर्ल स्टूडेंट्स भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। उनके शब्दकोश में भी चटपटी गालियों का भरपूर स्टॉक है।
पुरानी पीढ़ी के लोग कहते हैं कि आधुनिक समाज में मर्यादा और शिष्टाचार की सीमाएं धुंधली होती जा रही हैं। "नंगई" शब्द, जो पहले दिखावे और बेशर्मी का प्रतीक था, आज एक गंभीर चिंता का विषय बन गया है। यह प्रतिस्पर्धा, जिसमें हर कोई एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में लगा है। यह न केवल भौतिकता से जुड़ी है, बल्कि हमारे सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक मूल्यों पर भी एक गहरा सवाल खड़ा करती है।
राजनीति, जो कभी समाज का मार्गदर्शन करती थी, आज नंगई का अखाड़ा बन गई है। नेता और सार्वजनिक व्यक्ति अपनी गरिमा को ताक पर रखकर एक-दूसरे को नीचा दिखाने में लगे हैं। हाल ही में एक राजनीतिक बहस में एक नेता ने दूसरे नेता पर इतने व्यक्तिगत हमले किए कि उनकी राजनीतिक मंशा की बजाय उनका व्यक्तिगत द्वेष सामने आ गया। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी डिप्लोमेसी का मज़ाक बनते देखा गया है।
मीडिया, जो समाज का दर्पण माना जाता है, भी इस नंगई की होड़ में शामिल हो गया है। टीवी चैनल खबरें दिखाने की बजाय तमाशा बन गए हैं। बहसों में हंगामा, चीख-पुकार और व्यक्तिगत हमले आम हो गए हैं। भाषा की गरिमा कहीं खो गई है।
रिश्तों का लिहाज़ भी पूरी तरह से ख़त्म हो चुका है। नेता और अफसरों के बीच का संबंध अब केवल भूमिका तक सीमित नहीं रहा। आज अफसर अपने नेता को सम्मान देने की बजाय उन्हें डाँटते हुए नज़र आते हैं। यह अराजकता सरकारी दफ़्तरों से लेकर सड़कों तक देखी जा सकती है।
साधु-संत भी इस नंगई से अछूते नहीं हैं। आध्यात्मिकता के प्रतीक अब बेशर्मी की बातें करने लगे हैं। उनके शिष्टाचार और संयम का कोई महत्व नहीं रह गया है।
इस तरह, आज का समाज एक "बेशर्म समाज" में बदल गया है, जहां नैतिकता, मूल्य और गरिमा का कोई स्थान नहीं रहा है। सब कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ और दिखावे के इर्द-गिर्द घूमता है। चाहे राजनीति हो, मीडिया हो या समाज, हर जगह नंगई की एक नई परिभाषा गढ़ी जा रही है।
यह समझना ज़रूरी है कि इस नंगई की प्रतिस्पर्धा से न केवल हमारी पहचान प्रभावित होती है, बल्कि यह भविष्य की पीढ़ियों के लिए भी एक ग़लत उदाहरण पेश करती है। हमें इस प्रवृत्ति का सामना करने और इसे समाप्त करने का प्रयास करना चाहिए। नैतिक शिक्षा को बढ़ावा देना होगा, मीडिया को अपनी ज़िम्मेदारी समझनी होगी और समाज के हर वर्ग को मर्यादा और शिष्टाचार का पालन करना होगा। तभी हम एक स्वस्थ और संस्कारित समाज की दिशा में आगे बढ़ सकते हैं।